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ज़मीं-नज़ाद हैं लेकिन ज़माँ में रहते हैं - अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद कविता - Darsaal

ज़मीं-नज़ाद हैं लेकिन ज़माँ में रहते हैं

ज़मीं-नज़ाद हैं लेकिन ज़माँ में रहते हैं

मकाँ नसीब नहीं ला-मकाँ में रहते हैं

वो डोल डालें किसी कार-ए-पाएदार का क्या

जो बे-सबाती-ए-उम्र-ए-रवाँ में रहते हैं

हम ऐसे अहल-ए-चमन गोशा-ए-क़फ़स में भी

हिसाब-ए-ख़ार-ओ-ख़स-ए-आशियाँ में रहते हैं

न बूद-ओ-बाश को पूछो कि हम फ़क़ीर-मनश

सुख़न के मा'बद-ए-बे-साएबाँ में रहते हैं

कहाँ तलाश करोगे हमें कि हम तो मुदाम

हुज़ूरी-ए-दिल-ए-बे-ख़ानुमाँ में रहते हैं

नशे की लहर में ख़ुम ख़ुम लुंढा के आब-ए-हयात

सराब-ए-ज़िंदगी-ए-जावेदाँ में रहते हैं

नई मोहब्बतें 'ख़ालिद' पुरानी दोस्तियाँ

अज़ाब-ए-कशमकश-ए-बे-अमाँ में रहते हैं

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