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ताकीद करो ज़मज़मा-संजान-ए-चमन को - अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद कविता - Darsaal

ताकीद करो ज़मज़मा-संजान-ए-चमन को

ताकीद करो ज़मज़मा-संजान-ए-चमन को

बेचैन हों दिल जिन से वो नग़्मे न अलापो

ऐ अहल-ए-वतन! खाओ पियो शौक़ से लेकिन

खेलो न कभी सर से कभी मुँह से न बोलो

हर ताइर-ए-पर्रां के पर-ओ-बाल करो कैंच

हर बंदा-ए-आज़ाद को शीशे में उतारो

बन जाए रिवायत न कहीं हल्क़ा-ए-ज़ंजीर

हर रफ़्ता को मौजूद की मीज़ान पे तौलो

पुरसान-ए-परेशानी-ए-इंसाँ नहीं कोई

क़िस्मत की गिरह नाख़ुन-ए-तदबीर से खोलो

क्यूँ सर्फ़-ए-नज़र करते हो अंजाम से अपने

क़ुदरत तो तरफ़-दार किसी की नहीं लोगो!

हम तो हैं फ़क़त दिल-ज़दा-ए-ज़ौक़-ए-तमाशा

रम हम से अबस करते हो ऐ ज़ोहरा-निगाहो!

हम चश्म-ए-सहर, दीदा-ए-शब, दस्त-ए-सबा हैं

पर्दा तो है ना-महरमों से लाला-अज़ारो!

वो क़ौम कि नाम इस का मुसलमान है 'ख़ालिद'

क्या याद है शर्त अंतुम-उल-आलाैन की उस को?

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