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क़ज़ा से क़र्ज़ किस मुश्किल से ली उम्र-ए-बक़ा हम ने - अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद कविता - Darsaal

क़ज़ा से क़र्ज़ किस मुश्किल से ली उम्र-ए-बक़ा हम ने

क़ज़ा से क़र्ज़ किस मुश्किल से ली उम्र-ए-बक़ा हम ने

मता-ए-ज़िंदगी दे कर किया ये क़र्ज़ अदा हम ने

हमें किस ख़्वाब से ललचाएगी ये पुर-फ़ुसूँ दुनिया

खुरच डाला है लौह-ए-दिल से हर्फ़-ए-मुद्दआ हम ने

करें लब को न आलूदा कभी हर्फ़-ए-शिकायत से

शिआ'र अपना बनाया शेवा-ए-सब्र-ओ-रज़ा हम ने

हम उस के हैं सरापा अदबदा कर उस से क्या माँगें

उठाया है कभी ऐ मुद्दई दस्त-ए-दुआ हम ने

शहीदान-ए-वफ़ा की मंक़बत लिखते रहे लेकिन

न की अर्ज़ी ख़ुदाओं की कभी हम्द-ओ-सना हम ने

परखने वाले परखेंगे इसी मेआ'र पर हम को

जहाँ से क्या लिया हम ने जहाँ को क्या दिया हम ने

वही इंसाँ जहाँ जाओ वही हिरमाँ जिधर देखो

बपा-ए-ख़ुफ़्ता की सय्याही-ए-मुल्क-ए-ख़ुदा हम ने

लुटा ज़ौक़-ए-सफ़र भी कारवाँ का ऐसे लगता है

सुना हर ताज़ा पेश-आहंग का शोर-ए-दरा हम ने

सितम-आराओ सुन लो आख़िरी बर्दाश्त की हद तक

सहा हर ना-रवा हम ने सुना हर ना-सज़ा हम ने

ये दुज़्दीदा निगाहें हैं कि दिल लेने की राहें हैं

हमेशा दीदा-ओ-दानिस्ता खाई है ख़ता हम ने

कशाकश हम से पूछे कोई ना-आसूदा ख़्वाहिश की

हसीनों से बहुत बाँधे हैं पैमान-ए-वफ़ा हम ने

किया तकमील-ए-नक़्श-ए-ना-तमाम-ए-शौक़ की ख़ातिर

जौ तुम से हो सका तुम ने जौ हम से हो सका हम ने

'इराक़ी' की तरह 'ख़ालिद' को क्यूँ बदनाम करते हैं

न देखा कोई ऐसा ख़ुश-नवा-ए-बेनवा हम ने

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