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फूली है शफ़क़ गो कि अभी शाम नहीं है - अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद कविता - Darsaal

फूली है शफ़क़ गो कि अभी शाम नहीं है

फूली है शफ़क़ गो कि अभी शाम नहीं है

है दिल में वो ग़म जिस का कोई नाम नहीं है

किस को नहीं कोताही-ए-क़िस्मत की शिकायत

किस को गिला-ए-गर्दिश-ए-अय्याम नहीं है

अफ़्लाक के साए तले ऐसा भी है कोई

जो सैद-ए-ज़बूँ माया-ए-आलाम नहीं है

छिलकों के हैं अम्बार मगर मग़्ज़ नदारद

दुनिया में मुसलमाँ तो हैं इस्लाम नहीं है

ईमाँ नहीं मोमिन का मुकाफ़ात-ए-अमल पर

उम्मीद-ए-करम क्या तमा-ए-ख़ाम नहीं है

मस्जिद हो ख़राबात हो या कू-ए-बुताँ हो

इस क़लब-ए-तपाँ को कहीं आराम नहीं है

ऐ माह-विशो लाला-रुख़ो वस्ल की हम को

ख़्वाहिश तो है बे-शक मगर इबराम नहीं है

कैफ़ी हैं मय-ए-नाब-ए-ख़ुम-ए-मेहर-शुदा के

हम को तलब-ए-दुर्द-ए-तह-ए-जाम नहीं है

लफ़्ज़ों के दर-ओ-बस्त पे हर-चंद हो क़ादिर

शाएर नहीं जो साहब-ए-इल्हाम नहीं है

हर बात है 'ख़ालिद' में पसंदीदा ओ मतबू

इक पैरवी-ए-रस्म-ओ-रह-ए-आम नहीं है

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