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नख़चीर हूँ मैं कश्मकश-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र का - अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद कविता - Darsaal

नख़चीर हूँ मैं कश्मकश-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र का

नख़चीर हूँ मैं कश्मकश-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र का

हक़ मुझ से अदा हो न दर-ओ-बस्त-ए-हुनर का

मग़रिब मुझे खींचे है तो रोके मुझे मशरिक़

धोबी का वो कुत्ता हूँ कि जो घाट न घर का

दबता हूँ किसी से न दबाता हूँ किसी को

क़ाएल हूँ मुसावात-ए-बनी-नौ-ए-बशर का

हर चीज़ की होती है कोई आख़िरी हद भी

क्या कोई बिगाड़ेगा किसी ख़ाक-बसर का

दिल-गीर तो बे-शक हूँ पे नौमीद नहीं हूँ

रौशन है दिल-ए-शब में दिया नूर-ए-सहर का

पोशीदा नहीं मुझ से कोई जज़्र-ओ-मद-ए-शौक़

महरम हूँ सदा दिलबर-ए-अंगेख़्ता-बर का

ज़िंदाँ ओ सलासिल से सदाक़त नहीं दबती

है शान-ए-कई सिलसिला बस रक़्स-ए-शरर का

तस्वीर कोई बनती दिखाई नहीं देती

किया सर्फ़ा अबस हम ने किया ख़ून-ए-जिगर का

क्या शुग़्ल-ए-शजर कार है अफ़्कार से बेहतर

सौदा सर-ए-शोरीदा में गर हो न समर का

क्यूँ सर-ख़ुश-ए-रफ़्तार न हो हो क़ाफ़िला-ए-मौज

रहज़न का है अंदेशा न ग़म ज़ाद-ए-सफ़र का

डाली है सितारों पे कमंद अहल-ए-ज़मीं ने

ज़ोहरा का वो अफ़्सूँ न फ़साना वो क़मर का

हर बात है 'ख़ालिद' की ज़माने से निराली

बाशिंदा है शायद किसी दुनिया-ए-दिगर का

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