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हों क्यूँ न मुन्कशिफ़ असरार पस्त-ओ-बाला के - अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद कविता - Darsaal

हों क्यूँ न मुन्कशिफ़ असरार पस्त-ओ-बाला के

हों क्यूँ न मुन्कशिफ़ असरार पस्त-ओ-बाला के

जमे हैं पाँव ज़मीं पर सर आसमाँ को छुए

जो सरनविश्त में है उस को हो के रहना है

तो किस भरोसे पे इंसान जिद्द-ओ-जहद करे

अब आसमाँ से सहीफ़े नहीं उतरते मगर

खुला हुआ है दर-ए-इज्तिहाद सब के लिए

ज़बाँ अता करे शे'र उन की बे-ज़बानी को

जो अपने कर्ब का इज़हार कर नहीं सकते

बहार-ओ-बहजत-ओ-इज़्ज़-ओ-वक़ार उस पे निसार

ज़बाँ से माल से जाँ से जो ज़ालिमों से लड़े

है आँसुओं में शिफ़ा कैसी क्या ख़बर उस को

बहाए मक्र से जो झूट-मूट के टस्वे

है बस-कि काम हम ऐसों का भी मसीहाई

हम आसमान पे ज़िंदा उठाए जाएँगे

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