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कभी ऐ हक़ीक़त-ए-दिलबरी सिमट आ निगाह-ए-मजाज़ में - अब्दुल अलीम आसि कविता - Darsaal

कभी ऐ हक़ीक़त-ए-दिलबरी सिमट आ निगाह-ए-मजाज़ में

कभी ऐ हक़ीक़त-ए-दिलबरी सिमट आ निगाह-ए-मजाज़ में

कि तड़प रहे हैं हज़ारों दिल रह-ए-इश्क़-ए-सीना-गुदाज़ में

ये कशिश ये जज़्ब ये मो'जिज़ा निगह-ए-यतीम-ए-हिजाज़ में

कि पड़े थे सैकड़ों ग़ज़नवी भी जहाँ लिबास-ए-मजाज़ में

फ़क़त एक नुक़्ता गुनाह का सर-ए-चर्ख़ अब्र-ए-सियह बना

नज़र आईं मुझ को जो वुसअ'तें तिरी अफ़्व-ए-बंदा-नवाज़ में

ये नहीं कि हम में नहीं हैं वो ये नहीं कि ऐन हमी हैं वो

मगर इक हक़ीक़त-ए-मानवी है निहाँ लिबास-ए-मजाज़ में

न अना ग़लत था न हक़-ए-ग़लत मगर इतनी सी ग़लती हुई

ये जो राज़ था उसे चाहिए था छुपाना पर्दा-ए-राज़ में

जिसे पी के पीर बने जवाँ जिसे पी के चीख़ उठे जवाँ

ये वो मय है साक़ी-ए-मै-कशाँ तिरी चश्म-ए-बादा-नवाज़ में

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