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जबीन-ए-शौक़ को कुछ और भी इज़्न-ए-सआदत दे - अब्दुल अलीम आसि कविता - Darsaal

जबीन-ए-शौक़ को कुछ और भी इज़्न-ए-सआदत दे

जबीन-ए-शौक़ को कुछ और भी इज़्न-ए-सआदत दे

कि ज़ौक़-ए-ज़िंदगी महदूद संग-ए-आस्ताँ तक है

नवेद-ए-रुस्तगारी पर अबस दिल-शाद होता है

अभी सद दाम ऐ बुलबुल-ए-क़फ़स से आशियाँ तक है

ये एहसास-ए-तअ'ल्लुक़ मुझ को मिटने भी नहीं देता

कि तेरी दास्ताँ का रब्त मेरी दास्ताँ तक है

तराना छेड़ वो मुतरिब कि रूह-ए-इश्क़ चौंक उट्ठे

ख़रोश-ए-नाला-ए-ग़म क्या जो सोज़-ए-जिस्म-ओ-जाँ तक है

सरापा आरज़ू बन कर कमाल-ए-मुद्दआ हो जा

वो नंग-ए-इश्क़ है जो आरज़ू आह-ओ-फ़ुग़ाँ तक है

ज़माना चाहिए तकमील-ए-ज़ौक़-ए-लज़्ज़त-ए-ग़म को

अभी दुनिया-ए-दिल महदूद ज़िक्र-ए-ईँ-ओ-आँ तक है

बयाबान-ए-मोहब्बत की नवाज़िश पूछना क्या है

उम्मीद-ओ-बीम की हालत फ़क़त सूद-ओ-ज़ियाँ तक है

कहाँ से लाएगी दुनिया हमारी हिम्मतें 'आसी'

मोहब्बत में क़दम अपना फ़क़त कौन-ओ-मकाँ तक है

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