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ज़ियारत - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

ज़ियारत

बहुत से लोग मुझ में मर चुके हैं....

किसी की मौत को वाक़े हुए बारा बरस बीते

कुछ ऐसे हैं कि तीस इक साल होने आए हैं अब जिन की रहलत को

इधर कुछ सानेहे ताज़ा भी हैं हफ़्तों महीनों के

किसी की हादसाती मौत अचानक बे-ज़मीरी का नतीजा थी

बहुत से दब गए मलबे में दीवार-ए-अना के आप ही अपनी

मरे कुछ राबतों की ख़ुश्क-साली में

कुछ ऐसे भी कि जिन को ज़िंदा रखना चाहा मैं ने अपनी पलकों पर

मगर ख़ुद को जिन्हों ने मेरी नज़रों से गिरा कर ख़ुद-कुशी कर ली

बचा पाया न मैं कितनों को सारी कोशिशों पर भी

रहे बीमार मुद्दत तक मिरे बातिन के बिस्तर पर

बिल-आख़िर फ़ौत हो बैठे

घरों में दफ़्तरों में महफ़िलों में रास्तों पर

कितने क़ब्रिस्तान क़ाएम हैं

मैं जिन से रोज़ ही हो कर गुज़रता हूँ

ज़ियारत चलते-फिरते मक़बरों की रोज़ करता हूँ

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