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ख़याल-ए-ख़ातिर-ए-अहबाब - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

ख़याल-ए-ख़ातिर-ए-अहबाब

सलाम मेरे रफ़ीक़ों को हम-नशीनों को

सपाट चेहरों को बे-मेहर-ओ-लुत्फ़ सीनों को

कोई हबीब-ए-मसर्रत न कोई मूनिस-ए-ग़म

न दिल में जोश न यारा-ए-दर्द सीनों को

कोई फ़रोग़ न कोई नुमू कि यारों ने

रखा है कर के मुसत्तह तमाम ज़ीनों को

मिला न हैफ़! ग़ुल-आराई का मिज़ाज कभी

मिरे ख़ुलूस के ''ख़िर्मन के ख़ोशा-चीनों को''

फ़लक ने ज़ीनत-ए-निस्याँ बना के छोड़ दिया

रुसूम-ए-लुत्फ़ को दिल-जूई के क़रीनों को

ग़रज़ की तुंद हवाओं ने कर दिया बंजर

वफ़ा की किश्त को ईसार की ज़मीनों को

शिकस्ता कर दिया बदली नज़र के तूफ़ान ने

ख़ुद-ए'तिमादी के ढाले हुए सफ़ीनों को

नज़र में कज-निगही लब पे मस्लहत-गोई

ख़ुतूत-ए-रुख ने उभारा है दिल के कीनों को

ख़िलाफ़-ए-वज़अ हो भूले से गर ये शेर-ए-'अनीस'

सुनाए 'साज़' कोई मेरे हम-नशीनों को

''ख़याल-ए-ख़ातिर-ए-अहबाब चाहिए हर दम!

'अनीस' ठेस न लग जाए आबगीनों को!

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