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दम-ए-वापसीं - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

दम-ए-वापसीं

मिरे नफ़्स की वादियों में यहाँ से निकल चलने जैसी हवा चल रही है

उफ़ुक़-ता-उफ़ुक़ इक महकता धुआँ है

सदा ज़ाइक़े रंग और लम्स ख़ुशबू में तहलील होने लगे हैं

मह-ओ-साल-ए-रफ़्ता शब-ओ-रोज़-ए-आइंदा लम्हे में तब्दील होने लगे हैं

ज़माँ एक सकता

मकाँ एक नुक़्ता

लकीरें अदद हर्फ़ सारे

नम-आलूद काग़ज़ की तरकीब में घुल रहे हैं

क़बाए-बदन सरसराती है असरार-ए-जाँ ज़ेर-ए-बंद-ए-क़बा खुल रहे हैं

कोई सरमदी लौ सी उट्ठी है जिस से फ़ज़ा जल रही है

हवा चल रही है

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