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आवाज़ के मोती - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

आवाज़ के मोती

शेर के जादूगर संगीत के साहिर

मिसरों और धुनों के ख़ाली सीपों के कश्कोल उठाए

अफ़्सुर्दा मग़्मूम खड़े हैं

सूनी आँखों में टूटी उम्मीद लिए

आवाज़ के उन नौरस क़तरों की

जो ख़ाली सीपों में अमृत बन कर टपकें

और इज़हार गुहर बन जाए

लफ़्ज़ की बंदिश ताल की संगत रक़्स के तेवर

बे-हरकत बे-जान धरे हैं

उन होंटों की हसरत में

जिन की पेचीदा तर्सील ख़मीदा जुम्बिश

सौत ओ बयाँ को मअनी की सौ जिहतें बख़्शा करती थी

याद में उस पुर-नूर दहन की

जिस से उबलती तह-दर-तह आवाज़ के रौशन जादू से

शब्द सुरों में घुल जाते थे

नोक-ए-क़लम से बरबत के तारों तक जलते दाग़

आब-ए-सदा से धुल जाते थे

(उस के दिलकश गीत हवाओं के होंटों पर सदियों तक महफ़ूज़ रहेंगे)

शोर भरी दुनिया की दुखी तंहाई में

उम्र की जिस मंज़िल पे जिस जीवन की डगर पर

जज़्बों की जिस राहगुज़र पर

दिल का मुसाफ़िर पल-दो-पल को ठहरेगा

उस की सदा के हमदम हाथ

बुझी हुई बेज़ार समाअत के शाने थपकेंगे

मन का दुख बाँटेंगे

रंज ख़ुशी मौसम त्यौहार

वस्ल जुदाई दर्द क़रार

उम्मीदों की मस्ती टूटे ख़्वाबों की उलझन

ज़ुल्म बग़ावत गाँव वतन

अहद-ए-कुहन के रम्ज़ नए युग की तफ़्सीरें

इश्क़ इबादत आईना-ख़ाने तनवीरें

हर घर हर महफ़िल उस की आवाज़ के मोती

बाम-ए-हवा से बरसेंगे

आह मगर

अल्फ़ाज़ की बंदिश ताल की संगत रक़्स के तेवर

उस के धुन के नए उजालों नए उफ़ुक़ को

रहती दुनिया तक तरसेंगे

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