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यूँ भी दिल अहबाब के हम ने गाहे गाहे रक्खे थे - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

यूँ भी दिल अहबाब के हम ने गाहे गाहे रक्खे थे

यूँ भी दिल अहबाब के हम ने गाहे गाहे रक्खे थे

अपने ज़ख़्म-ए-नज़र पर ख़ुश-फ़हमी के फाहे रक्खे थे

हम ने तज़ाद-ए-दहर को समझा दो-राहे तरतीब दिए

और बरतने निकले तो देखा सह-राहे रक्खे थे

रक़्स-कदा हो बज़्म-ए-सुख़न हो कोई कारगह-ए-फ़न हो

ज़र्दोज़ों ने अपनी मा-तहती में जुलाहे रक्खे थे

मोहतसिबों की ख़ातिर भी अपने इज़हार में कुछ पहलू

रख तो लिए थे हम ने अब चाहे अन-चाहे रक्खे थे

जो वजह-ए-राहत भी न थे और टूट गए तो ग़म न हुआ

आह वो रिश्ते क्यूँ हम ने इक उम्र निबाहे रक्खे थे

काहकशाँ-बंदी में सुख़न की रह गई 'साज़' कसर कैसी

लफ़्ज़ तो हम ने चुन के नजूमे मोहरे माहे रक्खे थे

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