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सबक़ उम्र का या ज़माने का है - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

सबक़ उम्र का या ज़माने का है

सबक़ उम्र का या ज़माने का है

सब आमोख़्ता भूल जाने का है

ये गुम होते चेहरे ये मंज़र ये गर्द

समाँ रात दिन याँ से जाने का है

रुके हैं कि टुक देख लें सोच लें

तवक़्क़ुफ़ तकल्लुफ़ बहाने का है

ये सदियों का मोहकम मुनज़्ज़म सुकूत

तिलिस्म एक चुटकी बजाने का है

महक साँस सब्ज़ा-ए-क़ब्र की

किनाया सा जैसे बुलाने का है

वज़ाहत न क़ुर्बत की कीजे तलब

कि ये सिलसिला दूर जाने का है

क़फ़स में मिरे ज़ेहन के मुज़्तरिब

ये तिनका तिरे आशियाने का है

अलग इक कहानी सा लगता इधर

तसलसुल उधर के फ़साने का है

गए दिन समझने परखने के 'साज़'

ये मौसम तो बस मान जाने का है

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