सबक़ उम्र का या ज़माने का है
सबक़ उम्र का या ज़माने का है
सब आमोख़्ता भूल जाने का है
ये गुम होते चेहरे ये मंज़र ये गर्द
समाँ रात दिन याँ से जाने का है
रुके हैं कि टुक देख लें सोच लें
तवक़्क़ुफ़ तकल्लुफ़ बहाने का है
ये सदियों का मोहकम मुनज़्ज़म सुकूत
तिलिस्म एक चुटकी बजाने का है
महक साँस सब्ज़ा-ए-क़ब्र की
किनाया सा जैसे बुलाने का है
वज़ाहत न क़ुर्बत की कीजे तलब
कि ये सिलसिला दूर जाने का है
क़फ़स में मिरे ज़ेहन के मुज़्तरिब
ये तिनका तिरे आशियाने का है
अलग इक कहानी सा लगता इधर
तसलसुल उधर के फ़साने का है
गए दिन समझने परखने के 'साज़'
ये मौसम तो बस मान जाने का है
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