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नज़र आसूदा-काम-ए-रौशनी है - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

नज़र आसूदा-काम-ए-रौशनी है

नज़र आसूदा-काम-ए-रौशनी है

मिरे आगे सराब-ए-आगही है

ज़मानों को मिला है सोज़-ए-इज़हार

वो साअत जब ख़मोशी बोल उठी है

हँसी सी इक लब-ए-ज़ौक़-ए-नज़र पर

शफ़क़-ज़ार-ए-तहय्युर बन गई है

ज़माने सब्ज़ ओ सुर्ख़ ओ ज़र्द गुज़रे

ज़मीं लेकिन वही ख़ाकिस्तरी है

पिघलता जा रहा है सारा मंज़र

नज़र तहलील होती जा रही है

धुँदलकों को अँधेरे चाट लेंगे

कि आगे अहद-ए-मर्ग-ए-रौशनी है

बिखरते कारवाँ ये इर्तिक़ा के

सरासीमा सा ज़ौक़-ए-ज़िंदगी है

मैं देखूँ तो दिखा दूँगा तुम्हें 'साज़'

अभी मुझ में बसीरत की कमी है

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