न मक़ामात न तरतीब-ए-ज़मानी अपनी
न मक़ामात न तरतीब-ए-ज़मानी अपनी
इत्तिफ़ाक़ात पे मब्नी है कहानी अपनी
जिस्म सी जाती है तह-ए-हर्फ़ किसी कर्ब की मौज
थम के रह जाती है लफ़्ज़ों की रवानी अपनी
फैल जाती थी समाअत की ज़मीनों में नमी
थी कभी तर-सुख़नी आब-रसानी अपनी
लाख तुम मुझ को दबाओ मैं उभर आऊँगा
सतह हमवार किए रहता है पानी अपनी
माजरा रूह की वहशत का निजी है ऐ 'साज़'
आगे रूदाद नहीं हम को सुनानी अपनी
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