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मिरी निगाहों पे जिस ने शाम ओ सहर की रानाइयाँ लिखी हैं - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

मिरी निगाहों पे जिस ने शाम ओ सहर की रानाइयाँ लिखी हैं

मिरी निगाहों पे जिस ने शाम ओ सहर की रानाइयाँ लिखी हैं

उसी ने मेरी शबों के हक़ में ये कर्ब-आसाइयाँ लिखी हैं

कहाँ हैं वो आरज़ू के चश्मे तलब के वो मौजज़न समुंदर

नज़र ने अंधे कुएँ बनाए हैं फ़िक्र ने खाइयाँ लिखी हैं

ये जिस्म क्या है ये ज़ावियों का तिलिस्म क्या है वो इस्म क्या है

अधूरी आगाहियों ने जिस्म की ये निस्फ़ गोलाइयाँ लिखी हैं

किनाए पैराए इस्तिआरे अलामतें रमज़िए इशारे

किरन से पैकर को ज़ाविए दे के हम ने परछाइयाँ लिखी हैं

सुख़न का ये नर्म-सैल दरिया ढले तो इक आबशार भी है

नशेब-ए-दिल तक उतर के पढ़ना बड़ी तवानाइयाँ लिखी हैं

मिरे मह ओ साल की कहानी की दूसरी क़िस्त इस तरह है

जुनूँ ने रुस्वाइयाँ लिखी थीं ख़िरद ने तन्हाइयाँ लिखी हैं

ये मेरे नग़्मों की दिल-रसी तेरी झील आँखों की शायरी है

जमाल की सतह दी है तू ने तो मैं ने गहराइयाँ लिखी हैं

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