मिरी झोली में वो लफ़्ज़ों के मोती डाल देता है
मिरी झोली में वो लफ़्ज़ों के मोती डाल देता है
सिवाए इस के कुछ माँगूँ तो हँस कर टाल देता है
सुझाता है वही रस्ता भी उन से बच निकलने का
जो इन आँखों को ख़्वाबों के सुनहरे जाल देता है
मिरा इक कारोबार-ए-जज़्बा-ओ-अल्फ़ाज़ है उस से
मिरे जज़्बों को पिघला कर वो मिसरे ढाल देता है
हक़ीक़त घोल रखता है वो रूमानों के पानी में
मनाज़िर ठोस देता है नज़र सय्याल देता है
उतर आता है वो शोख़ी पे यूँ भी मेहरबानी की
मिरे इक शेर की मोहलत को माह ओ साल देता है
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