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मरने की पुख़्ता-ख़याली में जीने की ख़ामी रहने दो - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

मरने की पुख़्ता-ख़याली में जीने की ख़ामी रहने दो

मरने की पुख़्ता-ख़याली में जीने की ख़ामी रहने दो

ये इस्तिदलाली तर्क करो बस इस्तिफ़हामी रहने दो

ये तेज़-रवी ये तुर्श-रुई चलने की नहीं है दूर तलक

शबनम-नज़री शीरीं-सुख़नी आसूदा-गामी रहने दो

सौ दश्त समुंदर छानो पर आते रहो क़र्या-ए-दिल तक भी

बैरूनी हवा के झोंकों में इक मौज-ए-मक़ामी रहने दो

अब तंज़ पे क्यूँ मजबूर करो हम ग़ैर मुलव्विस लोगों को

फ़न पेश करो ये फ़हरिस्त-ए-असमा-ए-गिरामी रहने दो

रफ़्तार पर इतनी दाद न दो मंज़िल न मिरी छीनो मुझ से

अज़-राह-ए-हुनर मिरे हिस्से की थोड़ी नाकामी रहने दो

जतलाते फिरो गर क़द अपना पैमाइश की मोहलत तो न दो

इस क़ामत-ए-बाला के सदक़े ये ज़ूद-क़यामी रहने दो

अब हम से परेशाँ-हालाँ को क्या अम्न-ओ-सुकूँ रास आएगा

यूँही बोहरानी चलने दो सारा हंगामी रहने दो

ऐ 'साज़' वगर्ना लोग तुम्हें ठहराएँगे साँपों का मस्कन

इस शहर-ए-अक्स-गज़ीदा में आईना-फ़ामी रहने दो

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