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मैं ने अपनी रूह को अपने तन से अलग कर रक्खा है - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

मैं ने अपनी रूह को अपने तन से अलग कर रक्खा है

मैं ने अपनी रूह को अपने तन से अलग कर रक्खा है

यूँ नहीं जैसे जिस्म को पैराहन से अलग कर रक्खा है

मेरे लफ़्ज़ों से गुज़रो मुझ से दर-गुज़रो कि मैं ने

फ़न के पैराए में ख़ुद को फ़न से अलग कर रक्खा है

फ़ातिहा पढ़ कर यहीं सुबुक हो लें अहबाब चलो वर्ना

मैं ने अपनी मय्यत को मदफ़न से अलग कर रक्खा है

घर वाले मुझे घर पर देख के ख़ुश हैं और वो क्या जानें

मैं ने अपना घर अपने मस्कन से अलग कर रक्खा है

इस पे न जाओ कैसे किया है मैं ने मुझ को ख़ुद से अलग

बस ये देखो कैसे अनोखे-पन से अलग कर रक्खा है

उम्र का रस्ता और कोई है वक़्त के मंज़र और कहीं

मैं ने भी दोनों को बहम बचपन से अलग कर रक्खा है

दर्द की गुत्थी सुलझाने फिर क्यूँ आए हो ख़िरद वालो?

बाबा! हम ने तुम को जिस उलझन से अलग कर रक्खा है

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