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ख़ुद को क्यूँ जिस्म का ज़िंदानी करें - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

ख़ुद को क्यूँ जिस्म का ज़िंदानी करें

ख़ुद को क्यूँ जिस्म का ज़िंदानी करें

फ़िक्र को तख़्त-ए-सुलैमानी करें

देर तक बैठ के सोचें ख़ुद को

आज फिर घर में बयाबानी करें

अपने कमरे में सजाएँ आफ़ाक़

जल्सा-ए-बे-सर-ओ-सामानी करें

उम्र भर शेर कहें ख़ूँ थूकें

मुंतख़ब रास्ता नुक़सानी करें

ख़ुद के सर मोल लें इज़हार का क़र्ज़

दूसरों के लिए आसानी करें

शेर के लब पे ख़मोशी लिक्खें

हर्फ़-ए-ना-गुफ़्ता को ला-फ़ानी करें

कीमिया-कारी है फ़न अपना 'साज़'

आग को बैठे हुए पानी करें

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