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जीतने मारका-ए-दिल वो लगातार गया - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

जीतने मारका-ए-दिल वो लगातार गया

जीतने मारका-ए-दिल वो लगातार गया

जिस घड़ी फ़त्ह का ऐलान हुआ हार गया

थक के लौट आए अलम-दार-ए-मसावात आख़िर

दूर तक सिलसिला-ए-अंदक-ओ-बिस्यार गया

जिस को सब सहल-तलब जान के करते थे गुरेज़

इक वही शख़्स सू-ए-मंज़िल-ए-दुश्वार गया

इन दिनों ज़ेहन की दुनिया में है मसरूफ़ बशर

दिल की तहज़ीब गई दर्द का व्यवहार गया

हम गुनहगारों से बा-मअ'नी रहा हश्र का दिन

वर्ना ये सारा ही मंसूबा था बेकार गया

'साज़' है दिल-ज़दा अब भी तिरे शेरों के तुफ़ैल

हम तो समझे थे कि ऐ मीर ये आज़ार गया

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