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जैसे कोई दायरा तकमील पर है - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

जैसे कोई दायरा तकमील पर है

जैसे कोई दायरा तकमील पर है

इन दिनों मुझ पर गुज़िश्ता का असर है

ज़िंदगी की बंद सीपी खुल रही है

और उस में अहद-ए-तिफ़्ली का गुहर है

दिल है राज़-ओ-रम्ज़ की दुनिया में शादाँ

अक़्ल को हर आन तशवीश-ए-ख़बर है

इक तवक़्क़ुफ़-ज़ार में गुम है तसलसुल

लम्हा-ए-मौजूद गोया उम्र भर है

ज़ेहन में रौज़न अनोखे खुल रहे हैं

जिन से अन-सोची हवाओं का गुज़र है

फ़ासले तक़्सीम ही होते नहीं जब

'साज़' फिर क्या सुस्त-रौ क्या तेज़-तर है

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