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हिसार-ए-दीद में जागा तिलिस्म-ए-बीनाई - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

हिसार-ए-दीद में जागा तिलिस्म-ए-बीनाई

हिसार-ए-दीद में जागा तिलिस्म-ए-बीनाई

ज़रा जो लौ तिरी शम-ए-बदन की थर्राई

न जाने किस से बिछड़ने के राग-रंग हैं सब

ये ज़िंदगी है कि फ़ुर्क़त की बज़्म-आराई

सुकूत-ए-बहर में किस ग़म का राज़ पिन्हाँ था

बस एक मौज उठी और आँख भर आई

ये सम्त सम्त तख़ातुब उफ़ुक़ उफ़ुक़ तक़रीर

तिरा कलाम है मेरा रफ़ीक़-ए-तन्हाई

ख़िरद की रह जो चला मैं तो दिल ने मुझ से कहा

अज़ीज़-ए-मन ''ब-सलामत-रवी ओ बाज़-आई''

उठाए सूर सराफ़ील देखता ही रहा

बशर के हाथ निज़ाम-ए-क़यामत-आराई

किया था जी का ज़ियाँ हम ने इक ग़ज़ल भर को

हज़ार शेर कहे हो सकी न भरपाई

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