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इक ईमा इक इशारा मर रहा है - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

इक ईमा इक इशारा मर रहा है

इक ईमा इक इशारा मर रहा है

उफ़ुक़ पर दिल के तारा मर रहा है

जो मेरे ब'अद सब पैदा हुआ था

वो मुझ से पहले सारा मर रहा है

जिसे था फूल कर फटना ही लाज़िम

सिकुड़ कर वो ग़ुबारा मर रहा है

कई मौजों ने दम तोड़ा था जिस पर

सुना है वो किनारा मर रहा है

ख़िरद तहलील सहरा कर रही है

जुनूँ का इस्तिआरा मर रहा है

नज़र की मौत इक ताज़ा अलमिया

और इतने में नज़ारा मर रहा है

ज़माँ-पैमा यही मिक़्यास-ए-दिल था

मगर अब उस का पारा मर रहा है

मुझे ज़िंदा थी जिस की नागवारी

वो अब मुझ को गवारा मर रहा है

कहाँ माँगी हुई साँसें कहाँ दिल

जलाया था, दोबारा मर रहा है

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