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दरख़्त रूह के झूमे परिंद गाने लगे - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

दरख़्त रूह के झूमे परिंद गाने लगे

दरख़्त रूह के झूमे परिंद गाने लगे

हमें उधर के मनाज़िर नज़र भी आने लगे

ख़ुश-आमदीद का मंज़र ग़ुरूब-ए-शाम में था

दर-ए-शफ़क़ पे फ़रिश्ते से मुस्कुराने लगे

फ़िराक़ ओ वस्ल के मा-बैन ये समाँ जैसे

उदास लय में कोई हम्द गुनगुनाने लगे

मैं एक साअत-ए-बे-ख़ुद में छू गया था जिसे

फिर उस को लफ़्ज़ तक आते हुए ज़माने लगे

ख़बर के मोड़ पे संग-ए-निशाँ थी बे-ख़बरी

ठिकाने आए मिरे होश या ठिकाने लगे

मुहीब रास्ते सरहद की सम्त जाते हुए

ज़रा सा और चले हम तो वो सुहाने लगे

इक अपने-आप से मिलना था 'साज़' जिस के लिए

रिक़ाबतें हुईं दरकार दोस्ताने लगे

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