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बंद फ़सीलें शहर की तोड़ें ज़ात की गिरहें खोलें - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

बंद फ़सीलें शहर की तोड़ें ज़ात की गिरहें खोलें

बंद फ़सीलें शहर की तोड़ें ज़ात की गिरहें खोलें

बरगद नीचे नदी किनारे बैठ कहानी बोलें

धीरे धीरे ख़ुद को निकालें इस बंधन जकड़न से

संग किसी आवारा मनुश के हौले हौले हो लें

फ़िक्र की किस सरशार डगर पर शाम ढले जी चाहा

झील में ठहरे अपने अक्स को चूमें होंट भिगो लें

हाथ लगा बैठे तो जीवन भर मक़रूज़ रहेंगे

दाम न पूछें दर्द के साहब पहले जेब टटोलें

नौशादर गंधक की ज़बाँ में शेर कहें इस युग में

सच के नीले ज़हर को लहजे के तेज़ाब में घोलें

अपनी नज़र के बाट न रक्खें 'साज़' हम इक पलड़े में

बोझल तन्क़ीदों से क्यूँ अपने इज़हार को तौलें

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