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बजा कि पाबंद-ए-कूचा-ए-नाज़ हम हुए थे - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

बजा कि पाबंद-ए-कूचा-ए-नाज़ हम हुए थे

बजा कि पाबंद-ए-कूचा-ए-नाज़ हम हुए थे

यहीं से पर ले के महव-ए-पर्वाज़ हम हुए थे

सुख़न का आग़ाज़ पहले बोसे की ताज़गी था

अज़ल-रुबा साअतों के हमराज़ हम हुए थे

जहाँ से मादूम थी ख़ुश-आइंदगी सफ़र की

वहीं से इक लम्हा-ए-तग-ओ-ताज़ हम हुए थे

यहाँ जो इक गूँज दाएरे से बना रही है

इसी ख़मोशी में संग-ए-आवाज़ हम हुए थे

रवाँ-दवाँ इंकिशाफ़-दर-इंकिशाफ़ थे हम

जो मुड़ के देखा तो सेग़ा-ए-राज़ हम हुए थे

उफ़ुक़ था रौशन न मुर्तइश पानियों पे किरनें

ग़लत जज़ीरों पे लंगर-अंदाज़ हम हुए थे

कुरेदते फिर रहे हैं अब रेत साहिलों की

वही जो ग़ोता-ज़न-ए-यम-ए-राज़ हम हुए थे

जुमूद का एक दौर गुज़रा था फ़िक्र-ओ-फ़न पर

तवील अर्से के ब'अद फिर 'साज़' हम हुए थे

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