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बजा कि लुत्फ़ है दुनिया में शोर करने का - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

बजा कि लुत्फ़ है दुनिया में शोर करने का

बजा कि लुत्फ़ है दुनिया में शोर करने का

नशा कुछ और है गुम-नाम मौत मरने का

अबस है ज़ोम समुंदर के पार उतरने का

ये सिलसिला है फ़क़त डूबने उभरने का

अजब समाँ था कि तज़लील भी थी कैफ़-अंगेज़

वो मेरा वक़्त तिरी सीढ़ियाँ उतरने का

कफ़न में पाँव हिलें पैरहन में लाश चले

हमारा अहद न जीने का है न मरने का

ये आगही का मरज़ ला-इलाज है बाबा

बुख़ार उतरने का है ये न ज़ख़्म भरने का

यही वो साअत-ए-फ़न जिस में आप हों न मुख़िल

यही है वक़्त मगर हम से बात करने का

सभी ने प्यार से सर्फ़-ए-नज़र किया हम को

न आया 'साज़' तरीक़ा हमें अखरने का

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