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अज़दवाजी ज़िंदगी भी और तिजारत भी अदब भी - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

अज़दवाजी ज़िंदगी भी और तिजारत भी अदब भी

अज़दवाजी ज़िंदगी भी और तिजारत भी अदब भी

कितना कार-आमद है सब कुछ और कैसा बे-सबब भी

जिस के एक इक हर्फ़-ए-शीरीं का असर है ज़हर-आगीं

क्या हिकायत लिख गए मेरे लबों पर उस के लब भी

उम्र भर तार-ए-नफ़स इक हिज्र ही का सिलसिला है

वो न मिल पाए अगर तो और अगर मिल जाए तब भी

लोग अच्छे ज़िंदगी प्यारी है दुनिया ख़ूबसूरत

आह कैसी ख़ुश-कलामी कर रही है रूह-ए-शब भी

लफ़्ज़ पर मफ़्हूम उस लम्हे कुछ ऐसा मुल्तफ़ित है

जैसे अज़-ख़ुद हो इनायत बोसा-ए-लब बे-तलब भी

ना-तवाँ कम-ज़र्फ़ इस्याँ कार-ए-जाहिल और क्या क्या

प्यार से मुझ को बुलाता है वो मेरा ख़ुश-लक़ब भी

हम भी हैं पाबंदी-ए-इज़हार से बेज़ार लेकिन

कुछ सलीक़ा तो सुख़न का हो हुनर का कोई ढब भी

नाम निस्बत मिल्किय्यत कुछ भी नहीं बाक़ी अगरचे

'साज़' उस कूचे में मेरा घर हुआ करता है अब भी

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