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अबस है राज़ को पाने की जुस्तुजू क्या है - अब्दुल अहद साज़ कविता - Darsaal

अबस है राज़ को पाने की जुस्तुजू क्या है

अबस है राज़ को पाने की जुस्तुजू क्या है

ये चाक-ए-दिल है उसे हाजत-ए-रफ़ू क्या है

ये आइने हैं कि हम-चेहरा लश्करों की सफ़ें

ये अक्स अक्स कोई सूरत-ए-अदू क्या है

मुशाबहत के ये धोके मुमासलत के फ़रेब

मिरा तज़ाद लिए मुझ सा हू-ब-हू क्या है

मैं एक हल्क़ा-ए-बे-सम्त अपने मरकज़ पर

ये शश-जहात हैं कैसे ये चार-सू क्या है

ये लहम ओ ख़ूँ के किनाए ये ज़ेहन के उस्लूब

मिरे वजूद का पैराया-ए-नुमू क्या है

ये आसमाँ से रग-ए-जाँ तक एक सरगोशी

सुकूत-ए-शब का ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है

ये रहगुज़ार-ए-नफ़स तंगनाए-मायूसी

मगर ये वुसअत-ए-दामान-ए-आरज़ू क्या है

हिसार-ए-जिस्म ओ तिलिस्म-ए-क़बा अज़ीज़ मगर

निकल भी आओ मिरी जाँ कभू कभू क्या है

ख़याल क्या है जो अल्फ़ाज़ तक न पहुँचे 'साज़'

''जब आँख से ही न टपका तो फिर लहू क्या है''

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