Ghazals of Abdul Ahad Saaz
नाम | अब्दुल अहद साज़ |
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अंग्रेज़ी नाम | Abdul Ahad Saaz |
जन्म की तारीख | 1950 |
जन्म स्थान | Mumbai |
ज़िक्र हम से बे-तलब का क्या तलबगारी के दिन
यूँ तो सौ तरह की मुश्किल सुख़नी आए हमें
यूँ भी दिल अहबाब के हम ने गाहे गाहे रक्खे थे
तब-ए-हस्सास मिरी ख़ार हुई जाती है
सोच कर भी क्या जाना जान कर भी क्या पाया
सवाल का जवाब था जवाब के सवाल में
सवाल बे-अमान बन के रह गए
सामेआ लज़्ज़त-ए-बयान-ज़दा
सबक़ उम्र का या ज़माने का है
नज़र आसूदा-काम-ए-रौशनी है
न मक़ामात न तरतीब-ए-ज़मानी अपनी
मिज़ाज-ए-सहल-तलब अपना रुख़्सतें माँगे
मिरी निगाहों पे जिस ने शाम ओ सहर की रानाइयाँ लिखी हैं
मिरी झोली में वो लफ़्ज़ों के मोती डाल देता है
मेरी आँखों से गुज़र कर दिल ओ जाँ में आना
मौत से आगे सोच के आना फिर जी लेना
मरने की पुख़्ता-ख़याली में जीने की ख़ामी रहने दो
मंज़र शमशान हो गया है
मैं ने अपनी रूह को अपने तन से अलग कर रक्खा है
लम्हा-ए-तख़्लीक़ बख़्शा उस ने मुझ को भीक में
लफ़्ज़ों के सहरा में क्या मा'नी के सराब दिखाना भी
लफ़्ज़ का दरिया उतरा दश्त-ए-मआनी फैला
खुली जब आँख तो देखा कि दुनिया सर पे रक्खी है
ख़ुद को क्यूँ जिस्म का ज़िंदानी करें
खिले हैं फूल की सूरत तिरे विसाल के दिन
ख़राब-ए-दर्द हुए ग़म-परस्तियों में रहे
कभी नुमायाँ कभी तह-नशीं भी रहते हैं
जो कुछ भी ये जहाँ की ज़माने की घर की है
जीतने मारका-ए-दिल वो लगातार गया
जैसे कोई दायरा तकमील पर है