परों में शाम ढलती है
कहाँ जाना था मुझ को
किस नगर की ख़ाक बालों में सजाना थी
मुझे किन टहनियों से धूप चुनना थी
कहाँ ख़ेमा लगाना था
मिरी मिट्टी रह-ए-सय्यारगाँ की हम-क़दम निकली
मिरी पलकों पे तारे झिलमिलाते हैं
बदन में आग जलती है
मगर पाँव में ख़ूँ-आशाम रस्ते लड़खड़ाते हैं
ये क्या शीराज़ा-बंदी है
ये मेरी बे-परी किस कुंज से हो कर बहम निकली
नज़र में दिन निकलता है
परों में शाम ढलती है
मगर मैं तो लहू की मुंजमिद सिल हूँ
बदन की किश्त-ए-वीराँ में
ये किस की उँगलियों ने उम्र भर मुझ को कुरेदा है
कहाँ शिरयान में चलता हुआ ये क़ाफ़िला ठहरा
कि मैं उस हाथ की रेखाओं में रंग-ए-हिना ठहरा
कहाँ जाना था मुझ को
किस जगह ख़ेमा लगाना था
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