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अँदेशा-ए-विसाल की एक नज़्म - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

अँदेशा-ए-विसाल की एक नज़्म

शफ़क़ के फूल थाली में सजाए साँवली आई

चराग़ों से लवें खिचीं दरीचों में नमी आई

में समझा उस से मिलने की घड़ी आई

हवा जारूब-कश थी आसमाँ-आसार तिनकों की

जिसे अपनी सुहुलत के लिए दुनिया... ये तन-आसान दुनिया... इक मुरव्वत में

हुजूम-ए-ख़ल्क़ कहती है

मिरी आँखें तही गुल-दान की सूरत मुंडेरों पर

गली से उठने वाली गर्द को तितली बताती हैं

ये मंज़र मुंजमिद हो कर सफ़र आग़ाज़ करता है

लहू की बर्क़-रफ़्तारी तनाबें खेंच लेती है

ये कैसी शाम-ए-शहज़ादी

शफ़क़ के फूल थाली में सजाए ज़ीना-ए-शब से उतर आई

में समझा उस से मिलने की घड़ी आई

सलाख़ों से लहू फूटा लहू में रौशनी आई

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