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अधूरी नज़्म - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

अधूरी नज़्म

अँधेरी शाम के साथी

अधूरी नज़्म से ज़ोर-आज़मा हैं

बर-सर-ए-काग़ज़ बिछड़ने की

सुनो... तुम से दिल-ए-महज़ूँ की बातें कहने वालों का

यही अंजाम होता है

कहीं सत्र-ए-शिकस्ता की तरह हैं चार शाने चित

कहीं हर्फ़-ए-तमन्ना की तरह दिल में तराज़ू हैं

सुनो... इन नील-चश्मों सख़्त-जानों बे-ज़बानों पर

जो गुज़रेगी सो गुज़रेगी

मगर मैं इक अधूरी नज़्म की हैजान में खोया

तुम्हें आवाज़ देता हूँ

कि तन्हा आदमी तख़्लीक़ से आरी हुआ करता है

जान-ए-मन!

सुनो... मेरे क़रीब आओ

कि मुझ को आज की रात इक अधूरी नज़्म पूरी कर के सोना है!

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