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यूँ तो शीराज़ा-ए-जाँ कर के बहम उठते हैं - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

यूँ तो शीराज़ा-ए-जाँ कर के बहम उठते हैं

यूँ तो शीराज़ा-ए-जाँ कर के बहम उठते हैं

बैठने लगता है दिल जूँही क़दम उठते हैं

हम तो इस रज़्म-गह-ए-वक़्त में रहते हैं जहाँ

हाथ कट जाएँ तो दाँतों से अलम उठते हैं

सहल अंगार-तबीअ'त का बुरा हो जिस से

नाज़ उठते हैं तिरे और न सितम उठते हैं

कोई रौंदे तो उठाते हैं निगाहें अपनी

वर्ना मिट्टी की तरह राह से कम उठते हैं

नींद जाती ही नहीं अर्ज़-ए-हुनर से आगे

दफ़्तर-ए-ग़म ही सदा कर के रक़म उठते हैं

दिन की आग़ोश-ए-रज़ाअत से निकल कर 'ताबिश'

रात की रात कफ़-ए-ख़ाक से हम उठते हैं

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