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ये हम जो हिज्र में उस का ख़याल बाँधते हैं - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

ये हम जो हिज्र में उस का ख़याल बाँधते हैं

ये हम जो हिज्र में उस का ख़याल बाँधते हैं

हवा की शाख़ से बू-ए-विसाल बाँधते हैं

हमारे बस में कहाँ ज़ीस्त को सुख़न करना

ये क़ाफ़िया फ़क़त अहल-ए-कमाल बाँधते हैं

ये अहद-ए-जैब-तराशां को अब हुआ मा'लूम

यहाँ के लोग गिरह में सवाल बाँधते हैं

वो ख़ूब जानते हैं हम दुआ-निहादों को

हमारे साथ ब-वक़्त-ए-ज़वाल बाँधते हैं

सभी को शौक़-ए-असीरी है अपनी अपनी जगह

वो हम को और हम उन का ख़याल बाँधते हैं

तुम्हें पता हो कि हम साहिलों के पर्वर्दा

मोहब्बतों में भी मज़बूत जाल बाँधते हैं

फिर इस के बा'द कहीं भी वो जा नहीं सकता

जिसे भी बाँधते हैं हम कमाल बाँधते हैं

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