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सुब्ह की पहली किरन पहली नज़र से पहले - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

सुब्ह की पहली किरन पहली नज़र से पहले

सुब्ह की पहली किरन पहली नज़र से पहले

हम को होना है कहीं और सहर से पहले

चाँद ने देख लिया हम को कनार-ए-दरिया

भाग चलते हैं किसी और ख़बर से पहले

लौ लगाने से गई दर-बदरी की ज़िल्लत

ख़ुद को पहुँचा हुआ लगता हूँ सफ़र से पहले

क्यूँ न दुनिया को दिखाऊँ मैं जले हाथ का ज़ख़्म

कुछ चराग़ों से तअ'ल्लुक़ था उधर से पहले

इक हथेली है मिरी एक हथेली उस की

सब दुआएँ हैं असर-याब असर से पहले

शाम के बा'द अँधेरा नहीं रहता घर में

एक सूरज निकल आता है सहर से पहले

तब मिरी आँख खुला करती थी अंदर की तरफ़

मैं ने देखा है उसे पहली नज़र से पहले

तू फ़क़त सीना-ओ-दिल है न फ़क़त आरिज़-ओ-लब

सुख़न आग़ाज़ करे कोई किधर से पहले

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