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साँस के हम-राह शो'ले की लपक आने को है - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

साँस के हम-राह शो'ले की लपक आने को है

साँस के हम-राह शो'ले की लपक आने को है

ऐसा लगता है कोई रौशन महक आने को है

फिर पस-ए-पस्पाई मेरा हौसला ज़िंदा हुआ

आसमाँ से फिर कोई ताज़ा कुमक आने को है

एक ख़िल्क़त ही नहीं है बद-गुमानी का शिकार

उस की जानिब से मिरे भी दिल में शक आने को है

एक मुद्दत से चराग़-ए-सर्द सा रक्खा हूँ मैं

इस तवक़्क़ो' पर कि आँचल की भड़क आने को है

ऐ सफ़र की राएगानी आयतों के साथ चल

फिर वही जंगल वही सूनी सड़क आने को है

बेद-ए-मजनूँ हो रहे हैं तीर क्या तलवार क्या

मेरे दुश्मन में भी अब शायद लचक आने को है

अब तो इस छत पर कोई माह-ए-शबाना चाहिए

साया-ए-क़ामत फ़सील-शाम तक आने को है

रास्ते गुम हो रहे हैं धुँद की पहनाई में

सर्दियों की शाम है फिर उस का चक आने को है

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