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रम्ज़-गर भी गया रम्ज़-दाँ भी गया - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

रम्ज़-गर भी गया रम्ज़-दाँ भी गया

रम्ज़-गर भी गया रम्ज़-दाँ भी गया

हुस्न के साथ हुस्न-ए-बयाँ भी गया

सर से तारों भरी सर-ज़मीं भी गई

पाँव से ख़ाक का आसमाँ भी गया

फूल ही फूल थे कुंज-ए-आज़ार में

तुम वहाँ भी न थे मैं वहाँ भी गया

पहले मिट्टी उड़ी मंज़िलों की तरफ़

फिर उसे ढूँडने कारवाँ भी गया

मैं अकेला न था कू-ए-रुसवाई में

साथ वीराना-ए-जिस्म-ओ-जाँ भी गया

रंग पस्ती के फिर भी न इफ़्शा हुए

यूँ तो पाताल तक आसमाँ भी गया

इश्क़ में बाम-ओ-दर भी न पीछे रहे

साथ अपने मकीं के मकाँ भी गया

'ताबिश' अपने बसेरे की जानिब चलो

इस से क्या तुम को सूरज जहाँ भी गया

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