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रातें गुज़ारने को तिरी रहगुज़र के साथ - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

रातें गुज़ारने को तिरी रहगुज़र के साथ

रातें गुज़ारने को तिरी रहगुज़र के साथ

घर से निकल पड़ा हूँ मैं दीवार-ओ-दर के साथ

दस्तक ने ऐसा हश्र उठाया कि देर तक

लर्ज़ां रहा है जिस्म भी ज़ंजीर दर के साथ

कश्कोल थामते हैं कफ़-ए-ए'तिबार से

करते हैं हम गदागरी लेकिन हुनर के साथ

अब किस तरह ये टोकरी सर पे उठाऊँ मैं

सूरज पड़ा हुआ है मिरे बाम-ओ-दर के साथ

सूरज उसी तरह है ये महताब उसी तरह

ढलते रहे हैं यार ही शाम-ओ-सहर के साथ

यूँ है मिरी उड़ान पे भारी मिरा वजूद

जैसे ज़मीं बंधी हो मिरे बाल-ओ-पर के साथ

'ताबिश' मुझे सफ़र की रिवायत का पास था

सो मैं भी रह बना के चला रहगुज़र के साथ

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