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नींदों का एक आलम-ए-असबाब और है - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

नींदों का एक आलम-ए-असबाब और है

नींदों का एक आलम-ए-असबाब और है

शायद किसी की आँख में इक ख़्वाब और है

तू मुझ को ताक़-ए-सीना में रक्खा हुआ न जान

मैं जिस में जल रहा हूँ वो मेहराब और है

यूँही नहीं ये ज़रबत-ए-तेशा की दस्तकें

लगता है इक फ़सील पस-ए-बाब और है

लहरा रहा है सत्ह पे महताब-ए-ग़ोता-ज़न

हर-चंद एक शहर तह-ए-आब और है

फूटी हैं जिस जगह मिरी आँखों की कोंपलें

दिल से परे वो ख़ित्ता-ए-शादाब और है

खोया हुआ हूँ नींद के पर्दे के उस तरफ़

लगता है एक ख़्वाब पस-ए-ख़्वाब और है

किरनें तो इक निगाह-ए-सुबुक-रौ की लहर हैं

दुम्बाला-दारी-ए-शब-ए-महताब और है

'ताबिश' ये तेरा अक्स नहीं मेरी आँख में

इस झील में ये परतव-ए-ज़रताब और है

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