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नक़्श सारे ख़ाक के हैं सब हुनर मिट्टी का है - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

नक़्श सारे ख़ाक के हैं सब हुनर मिट्टी का है

नक़्श सारे ख़ाक के हैं सब हुनर मिट्टी का है

इस दयार-ए-रंग-ओ-बू में बस्त-ओ-दर मिट्टी का है

कुछ तो अपनी गर्दनें कज हैं हवा के ज़ोर से

और कुछ अपनी तबीअ'त में असर मिट्टी का है

चाँदनी ख़ंदाँ है अपने हुजरा-ए-महताब पर

और मैं नाज़ाँ हूँ इस पर मेरा घर मिट्टी का है

रहमतें बरसा के भी अब्र-ए-करम छटता नहीं

ऐसे लगता है कि साया चर्ख़ पर मिट्टी का है

ख़ाक से उठते नहीं चलती हवा के साथ हम

इज्ज़-ए-ख़ातिर पर बहुत गहरा असर मिट्टी का है

इक नमूना है किसी की सनअत-ए-तिमसाल का

ये जो खिड़की है सदा की ये जो घर मिट्टी का है

क्यूँ न ख़ू-ए-ख़ाक से ख़स्ता रहे मेरी अना

पा-ब-गिल हूँ और ख़मीर-ए-मोतबर मिट्टी का है

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