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मुझ तही-जाँ से तुझे इंकार पहले तो न था - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

मुझ तही-जाँ से तुझे इंकार पहले तो न था

मुझ तही-जाँ से तुझे इंकार पहले तो न था

तेरा और मेरे लिए दीवार पहले तो न था

हुस्न ने सौंपी है ये कैसी निगूँ-सारी मुझे

मैं किसी का आइना-बरदार पहले तो न था

इस तरह तो पा-ब-जौलाँ हम न फिरते थे कभी

इन गली-कूचों में ये बाज़ार पहले तो न था

अब कहाँ से आई उस काफ़िर के दिल में रौशनी

आइना हल्क़ा-ब-गोश-ए-यार पहले तो न था

'ताबिश' इक दरयूज़ा-गर को बाज़ रखने के लिए

कोई दरवाज़ा पस-ए-दीवार पहले तो न था

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