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कोई टकरा के सुबुक-सर भी तो हो सकता है - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

कोई टकरा के सुबुक-सर भी तो हो सकता है

कोई टकरा के सुबुक-सर भी तो हो सकता है

मेरी ता'मीर में पत्थर भी तो हो सकता है

क्यूँ न ऐ शख़्स तुझे हाथ लगा कर देखूँ

तू मिरे वहम से बढ़ कर भी तो हो सकता है

तू ही तू है तो फिर अब जुमला जमाल-ए-दुनिया

तेरा शक और किसी पर भी तो हो सकता है

ये जो है फूल हथेली पे इसे फूल न जान

मेरा दिल जिस्म से बाहर भी तो हो सकता है

शाख़ पर बैठे परिंदे को उड़ाने वाले

पेड़ के हाथ में पत्थर भी तो हो सकता है

क्या ज़रूरी है कि बाहर ही नुमू हो मेरी

मेरा खिलना मिरे अंदर भी तो हो सकता है

ये जो है रेत का टीला मिरे क़दमों के तले

कोई दम में मिरे ऊपर भी तो हो सकता है

क्या ज़रूरी है कि हम हार के जीतें 'ताबिश'

इश्क़ का खेल बराबर भी तो हो सकता है

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