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कस कर बाँधी गई रगों में दिल की गिरह तो ढीली है - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

कस कर बाँधी गई रगों में दिल की गिरह तो ढीली है

कस कर बाँधी गई रगों में दिल की गिरह तो ढीली है

उस को देख के जी भर आना कितनी बड़ी तब्दीली है

ज़िंदा रहने की ख़्वाहिश में दम दम लौ दे उठता हूँ

मुझ में साँस रगड़ खाती है या माचिस की तीली है

उन आँखों में कूदने वालो तुम को इतना ध्यान रहे

वो झीलें पायाब हैं लेकिन उन की तह पथरीली है

कितनी सदियाँ सूरज चमका कितने दोज़ख़ आग जली

मुझे बनाने वाले मेरी मिट्टी अब तक गीली है

ज़िंदा हूँ तो मुझे बताएँ नीले होंटों वाले लोग

मेरा कैसा रंग करेगी बात जो मैं ने पी ली है

मुमकिन है अब वक़्त की चादर पर मैं करूँ रफ़ू का काम

जूते मैं ने गाँठ लिए हैं गुदड़ी मैं ने सी ली है

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