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जहान-ए-मर्ग-ए-सदा में इक और सिलसिला ख़त्म हो गया है - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

जहान-ए-मर्ग-ए-सदा में इक और सिलसिला ख़त्म हो गया है

जहान-ए-मर्ग-ए-सदा में इक और सिलसिला ख़त्म हो गया है

कलाम या'नी ख़ुदा का हम से मुकालिमा ख़त्म हो गया है

हमें तो बस ये पता चला था कि ऊँटों वाले चले गए हैं

किसी को इस की ख़बर नहीं जो मोआ'मला ख़त्म हो गया है

न तितलियों जैसी दोपहर है न अब वो सूरज गुलाब जैसा

जिसे मोहब्बत कहा गया वो मुग़ालता ख़त्म हो गया है

तुम्हारी बातों के जिन पे शहतूत झड़ रहे हों वही बताएँ

कि तल्ख़-आबाद में हमारा तो ज़ाइक़ा ख़त्म हो गया है

हमारी आँखों से ख़्वाब ओ ख़स के तमाम पुश्ते हटाए जाएँ

हमारा नाराज़ पानियों से मुआहिदा ख़त्म हो गया है

अब इस लिए भी हमें मोहब्बत को तूल देना पड़ेगा 'ताबिश'

किसी ने पूछा तो क्या कहेंगे कि सिलसिला ख़त्म हो गया है

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