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इतना आसाँ नहीं मसनद पे बिठाया गया मैं - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

इतना आसाँ नहीं मसनद पे बिठाया गया मैं

इतना आसाँ नहीं मसनद पे बिठाया गया मैं

शहर-ए-तोहमत तिरी गलियों में फिराया गया मैं

मेरे होने से यहाँ आई है पानी की बहार

शाख़-ए-गिर्या था सर-ए-दश्त लगाया गया मैं

ये तो अब इश्क़ में जी लगने लगा है कुछ कुछ

इस तरफ़ पहले-पहल घेर के लाया गया मैं

ख़ूब इतना था कि दीवार पकड़ कर निकला

उस से मिलने के लिए सूरत-ए-साया गया मैं

तुझ से कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं थी वर्ना

एक मुद्दत तिरी दहलीज़ तक आया गया मैं

ख़ल्वत-ए-ख़ास में बुलवाने से पहले 'ताबिश'

आम लोगों में बहुत देर बिठाया गया मैं

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