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इश्क़ की जोत जगाने में बड़ी देर लगी - अब्बास ताबिश कविता - Darsaal

इश्क़ की जोत जगाने में बड़ी देर लगी

इश्क़ की जोत जगाने में बड़ी देर लगी

साए से धूप बनाने में बड़ी देर लगी

मैं हूँ इस शहर में ताख़ीर से आया हुआ शख़्स

मुझ को इक और ज़माने में बड़ी देर लगी

ये जो मुझ पर किसी अपने का गुमाँ होता है

मुझ को ऐसा नज़र आने में बड़ी देर लगी

इक सदा आई झरोके से कि तुम कैसे हो

फिर मुझे लौट के जाने में बड़ी देर लगी

बोलता हूँ तो मिरे होंट झुलस जाते हैं

उस को ये बात बताने में बड़ी देर लगी

मेरे अर्से में कोई सहल न था कार-ए-सुख़न

एक दो शेर कमाने में बड़ी देर लगी

मैं सर-ए-ख़ाक कोई पेड़ नहीं था 'ताबिश'

इस लिए पाँव जमाने में बड़ी देर लगी

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