हवा-ए-मौसम-ए-गुल से लहू लहू तुम थे
हवा-ए-मौसम-ए-गुल से लहू लहू तुम थे
खिले थे फूल मगर उन में सुर्ख़-रू तुम थे
ज़रा सी देर को मौसम का ज़िक्र आया था
फिर उस के बा'द तो मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू तुम थे
और अब कि जब सूरत नहीं तलाफ़ी की
मैं तुम से कैसे कहूँ मेरी आरज़ू तुम थे
कहानियों में तो ये काम अज़दहे का था
मिरी जब आँख खुली मेरे चार-सू तुम थे
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